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Sheela Sharma

Drama

4  

Sheela Sharma

Drama

याद आते है वो दिन

याद आते है वो दिन

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432

वो पंगत में बैठ, निवालों को तोड़ना 

वो अपनों की संगत में बैठ, रिश्तों को जोड़ना।


वो दादा की लाठी पकड़, गलियों में घूमना

वो चाची का लेना बलैयॉ, माथे को चूमना।


वो परियों की बातें, किस्से कहानियाँ 

आँख खुलती थी,सुनकर मन्दिर की घन्टियाँ।


समृद्धि न थे तो क्या, दस दस को पालते

खुद ठिठुरते रहते, बच्चों को ढाँपते।


संस्कार और संस्कृति, रग रग में बसते 

घर था पाठशाला, सब खुश रह नुमाइयाँ।


सोचती हूँ अब, कहाँ से कहाँ आगये

देखते देखते भावनाओं को रवा गये।


इन्सान अब, खुद से दूर हो रहा

शामलात परिवार का, दौर खो रहा।


आज गर्मी में वातानुकूलित, जाड़े में हीटर है

और रिश्तों को मापने के लिये, स्वार्थ का मीटर है।


मैं आज की युवा पीढ़ी को, एक बात बताना चाहती हूँ

उनके अर्न्तमन में, एक दीप जलाना चाहती हूँ।


गर अपने आप से, सारी उम्र यूँ ही नजर चुराओगे

अपनों के न हुये, तो किसी के न हो पाओगे।


पाओगे सब कुछ, पर अपना अस्तित्व गंवाओगे

बुर्जुगों की छत्रछाया में ही, महफूज़् रह पाओगे।


अगर पिता दुखी माँ रूठी होंगी 

तो तुम्हारी होली बेमानी, दीपावली झूठी होगी।


अपनों के बीच अब सारी, दूरियाँ मिटा दो

रिश्तों की दरार भर दो, उन्हें फिर से गले लगालो।


आशा बस यही संस्कारों को जगाते, संस्कृति को बचाते

अपनी पहचान बनाओगे तुम।


"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, "में आस्था रख

इन्सानियत को आगे बढ़ाओगे तुम।


कितनी ही बार उधड़ जाती,

रिश्तों की पुरानी वो दोहर तब।


अभिमान और अवसादों को छोड़

प्यार भरे टाँकों से, सिलवा दोगे वो दोहर

तब याद आयेंगे तुम्हें भी ये दिन।


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