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Surendra kumar singh

Drama

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Surendra kumar singh

Drama

आंखों के बसन्त में

आंखों के बसन्त में

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तेरी आँखों के बसन्त में

जिज्ञासा का दामन पकड़े

कल्पबृक्ष की ही साया में

मनचाहा आनन्द लिया है।


तूने दी पत्थर को आंखे

उन आंखों में जब से

हमको प्यार मिला है

हम शरीर की सीमाओं में

प्राण तत्व से कैद हो गये


कैद हुये तो

भावों की दुनिया मे निकले

शब्दों में सन्देश छिपाये

अमृत घट का बोझ उठाये

विह्वल मन की छुब्ध गली में

उल्लासों के पेड़ लगाये।


तेरी आँखों के बसन्त में

जिज्ञासा की साया साया

भावों की तेरी दुनिया मे

शब्दों का मनुहार देखते


हम मनुष्य के दिब्य भवन में

अपनी सुधि बुद्धि खो बैठे हैं

कहाँ चलें हम साथ लिये

इस कानन बन को


कहाँ छिपाएं किरण निकलती

मानव की इस तपोभूमि को

मानव की इस तपोभूमि का

एक एक जर्रा, एक तिनका


लाखों सूरज के प्रकाश से

अधिक प्रकाशित अधिक सभाषित

चंदन बन से भी गन्धिल

कहाँ चलें हम साथ लिये


इस ठंड हवा के झोंके को

जिसके अंदर के कण कण से

झरते झरना,बहती नदियां

सागर जिसका बन्दन करता


अपनी देह समर्पित करता

काल कोठरी में बैठा यम

जिसका ही गुणगान कर रहा

कहाँ चलें हम साथ लिये

इस मोहक क्षण के मधुर पलों को।


तेरी आँखों के बसन्त में

जिज्ञासा की अंगुली पकड़े

जब हम भवसागर में आये

आते ही बदनाम हो गये


सुबह हुयी तो शाम हो गये

शांत हुये तो शोर बन गये

भवसागर में बाढ़ देखकर

शब्दों का संत्रास देखकर


भावों का बाजार देखकर

आँसूं आंख में रोक न पाये

भवसागर भी शब्द हो गया

भवसागर निःशब्द हो गया


भवसागर में उठतीं लहरें

लहरों पर शब्दों के गहने

लहर उठी तो शब्द बन गयी

लहर गिरी तो शब्द बन गयी


लहरों की हर एक सतह पर

शब्दों का अधिकार देखकर

ठगे ठगे से हम घबराये।


तेरी आँखों के बसन्त में

जिज्ञासा के आगे पीछे

आग लगी तो आग बन गये

लहर उठी तो कहर बन गये


शोर उठा तो शोर बन गये

शाम हुयी तो शाम बन गये

सुबह हुयी तो सुबह हो गये

प्यास लगी तो प्यास बन गये


भूख लगी तो भूख बन गये

बहते हुये शब्द के तट पर

ढूंढ रहे हैं नाम तुम्हारा।

शब्द कहाँ है नाम तुम्हारा।


तेरी आँखों के बसन्त में

जिज्ञासा का आँचल ओढ़े

अपने दिल के दरवाजे पर

पीछे मुड़कर, आंख खोलकर


आंख खोलकर देख रहे हैं

लोकतंत्र को बहते बहते

करुणा को कुछ सहमे सहमे

आशाओं को जलते जलते


प्रेम को अपना ही मुंह धोते

न्याय को अपनी आंखें मलते

विह्वल मन की क्षुब्ध गली में

उल्लासों की लहर मचलते


नये रूप में तथ्य संवरते

विश्वासों को आते जात

भावों के पत्थर पहाड़ को

तेरी आँखों के बसन्त में


घुलते घुलते, घुल घुल मिलते

घुलते घुलते देख रहे हैं

तृष्णा को अपना सिर धुनते

क्रोध को प्रेम का पांव पकड़ते


लालच को चादर ढक सोते

मोह को अपना वस्त्र बदलते

बुद्धि को कुछ चिंतन करते

भावों को शब्दों से मिलते


शब्दों से भावों को झरते

तेरी आँखों के बसन्त को

आने से पहले के किस्से

बहते बहते लुप्त हो गई

तेरी आँखों के बसन्त में।


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