बीते युग चार
बीते युग चार
सिसक रहा मन, सुकून पाने को
बिलख रही हर साँस, स्वतंत्र हो जाने को !
वृहद हो गयी पीड़, त्राण कहाँ पाऊँ
तृण तृण टूटे मन, कहाँ जाऊँ !
लघु हुआ नीलाभ, मन की अगन से
भीग गई धरा, नयन के अंसुवन से !
आज फिर एक वामा, कानन में है खड़ी
धोबियों की जमात, है फिर पीछे पड़ी !
मौन है फिर समाज, सन्नाटा है पसरा हुआ
बीत गये युग चार, सीता कभी अतीत नहीं !