# जमाना #
# जमाना #
वे आजमाते रहे
सदियों से सब्र मेरी,
सब्र के सिवा मेरे पास
कुछ बचा भी नहीं
सह-सहकर बन गया
पत्थर दिल मैं तो,
अब फेंकें पत्थर
मुझे चोट पहुंचाते नहीं
जिक्र क्या करूँ?
हुआ कुछ अब नया नहीं
घर जलना...गांव उजड़ना...
कब मैंने सहा नहीं?
मौत दे रहे मुझे वे
मेरी ही दहलीज पर
पता है उन्हें,
गैरत मेरी अभी जगी नहीं
गंगा-जमुनी तहजीब की इबारत
लिखी है मेरे ही लहू से,
मुझे मिटाने की ख्वाहिश
दिल से उनके गई नहीं,
मर चुका हूँ मैं कभी का
यकीन उनको अभी भी नहीं,
दहका कर घर को मेरे
देख रहे राख में हरकत तो नहीं,
तसल्ली रखो मेरे मरने की
खबर कहीं पर छपेगी नहीं,
बेखौफ अंजाम दो अपनी हरकतों को
दिल्ली तुम्हारी अब कहीं दूर नहीं,
अंकित होना ही मेरी खता रही...
दोष तुम्हें देगा जमाना कभी नहीं. !!
जमाना कभी नहीं. !!