सानिध्य !
सानिध्य !

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गिरफ्त तड़पती
रहती है स्याह रातों में
अलाव रो उठते हैं
गर्माहट के आभाव में
दारिया मचलता है
खुद में समेटने को
लहरों के बहाव को
रूह नोचती रहती है
जिस्म के रेशों को
जख्मों के नासूर
दर्द महसूसने को
चीखते रहते हैं
और मैं उन पलों में
तुम्हारे सानिध्य
के लिए सुलगती
रहती हूँ !