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मिली साहा

Abstract

4.5  

मिली साहा

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आज़ादी

आज़ादी

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405


आज़ादी किसे नहीं लगती अच्छी,

चाहे इंसान हो, जानवर हो या हो पक्षी,

वर्षों बर्दाश्त किया गुलामी की जंजीरों को,

फिर भी न समझ सके आज़ादी के मतलब को,


मूक प्राणियों को हम कैद कर देते हैं,

निर्ममता से उनकी आज़ादी छीन लेते हैं,

वो मूक प्राणी कहां कह पाते हैं अपनी व्यथा,

उनके दर्द को आखिर इंसां क्यों नहीं समझ पाता,


ऐसे ही एक पंछी की ये कहानी है,

कैद हुआ वो इंसानों ने की मनमानी है,

अपने स्वार्थ के लिए उसको कैद कर दिया,

छीनकर आसमान उसका उसे पिंजरा दे दिया,


बंद पिंजरे में पंछी फड़फड़ा रहा है,

आजादी के लिए नितदिन लड़ रहा है,

क्या आजाद होकर भी सुखी रह पाएगा,

या किसी के हाथों वो फिर से क़ैद हो जाएगा,


वर्षों से नहीं उड़ा खुले आसमान में,

नहीं जाना क्या हो रहा है इस जहां में,

शायद उड़ना भी अब वो भूल गया होगा,

पिंजरे को ही नसीब अपना समझ बैठा होगा,


खुले आकाश में वो मस्ती से उड़ता था,

कैद होगा ऐसे उसने कभी नहीं सोचा था,

अब तो बस छोटा सा पिंजरा है उसका घर,

पंख ही कुतर डाले इंसानों ने उसको कैद कर,


उसके लिए आजादी की क्या परिभाषा है,

आसमां में आज़ादी से उड़ने की अभिलाषा है,

पिंजरे से निकलकर भी पिंजरा मन में रह जाता है,

पिंजरे के डर को वर्षों तक मन से निकाल नहीं पाता है,


उड़ने दो खुले आसमान में पंछियों को,

जंजीरों से ना बांधो इनके कोमल पंखों को,

इन्हें भी आज़ाद रहने का हक है वो हक न छीनो,

पिंजरे में डालकर उनके मन में कोई पिंजरा ना डालो।



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