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Suman Sachdeva

Abstract

3  

Suman Sachdeva

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यादें

यादें

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 बारिश में भीगे युग बीता 

 कागज की किशती खो बैठे

 वो अल्हड़, चंचल और नादां

 प्यारा सा बचपन खो बैठे


 रातों को छत पे सोते थे

 आकाश को ताका करते थे

 तारों की प्यारी सी महफिल

 चंदा से गुफ्तगू करते थे 


' पुर' गिनते थे कि हवा चले

 गिनते गिनते सो जाते थे

 फिर हवा चले या हो गर्मी

 बस ख्वाबों मे खो जाते थे


 दिन कब निकला कब रात हुई

 जाने कब सोए कब जागे

 बागों से चुराए आम कभी

 कभी तितली के पीछे भागे

 

 भाइयों से झगड़ा करते थे

 बहनों को बहुत सताते थे

 यारों से कट्टी करते फिर 

 अगले पल गले लगाते थे


 वो पीपल, बरगद की छाया

 वो मटकी ,गागर कहां गये 

 वो गुल्ली डंडा और पिट्ठू

 वो खेल खिलौने कहां गये


 वो गुड्डे गुडिया की शादी

 वो सावन भादों के झूले

 वो रेत के बने घरोंदे और

 वो आंख मिचौली सब भूले

 

 कागज़ की बेडी नही बनी

 न ही जहाज बन पाते हैं

 कापी के पिछले पन्ने भी

 अब बिन फाड़े रह जाते हैं


परियों की जादूगरनी की

न कोई कहानी सुनाता है

घोडे पर चढ़ कर अब कोई

 न राजकुमार ही आता है


 मां की लोरी न पापा की ही

 गाली की बरसात हुई

 वो चाचा मामा के कंधे

 अब भूली बिसरी बात हुई


 बिछुडे जो मीत पुराने

 उनको मिलने की फरियाद करे

 जो लौट के न अब आएं

 दिल वो मस्त जमाने याद करे। 


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