गज़ल
गज़ल
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आग कैसी लगी उधर तन्हा
खाक जल के हुए इधर तन्हा
मिल गये हो तो इक गुज़ारिश है
मुझको जाना न छोड़कर तन्हा
भीड़ ही भीड़ हर तरफ है मगर
तेरे बिन लगता है शहर तन्हा
बाद मुद्दत के जो मिला कल शब
रो पड़ा मुझको देखकर तन्हा
क्या बताएं कि तेरे बिन हमने
कैसे काटा है ये सफर तन्हा
रात दिन बेकसी का आलम है
लगते हैं शाम और सहर तन्हा
पंछी ड़ाली से उड़ गया कब का
कांपता रह गया शज़र तन्हा
तुम अकेले नही हुए बेकल
तड़पे हैं हम भी रात भर तन्हा
ओस फूलों पे देख के यूं लगा
कोई रोया है रात भर तन्हा
एक नदिया के दो किनारे हैं
तुम उधर और हम इधर तन्हा
कितना इंतजार और बाकी है
कट ही जाए न ये उम्र तन्हा।
