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Suman Sachdeva

Others

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Suman Sachdeva

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ज़िंदगी

ज़िंदगी

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ज़रा सोचो ये क्या है जिसको हम कहते हैं ज़िंदगी  

महज़ चलती हुई सांसों का ही क्या नाम है ज़िंदगी  


कोई मिल जाए जब अपना जो इस दुनिया की भीड़ में

तो दिल चाहे कि थोड़ी और लंबी हो ये ज़िंदगी  


बिछड़ जाए कोई अपना तो काटे ही नही कटती

कि इक इक पल बिताना भार लगती है ये ज़िंदगी  


मिले जिसको तो शोहरत और दौलत इस जमाने में

उन्हे तो सेज़ फूलों की लगे दिन रात ज़िंदगी  


मगर जो भूख से बेकल फटे हालों रहें हरदम

बिछा दे उनके पथ में कांटे बेशुमार ज़िंदगी  


वो बचपन के सुहाने दिन रहे मस्ती में अलबेले

जवानी में भी अक्सर ले आए बहार ज़िंदगी  


बुढापे में न लौटें दिन जो बचपन और जवानी के 

तो फिर लगने लगे नाकाम और लाचार ज़िंदगी  


न रहते एक से सब दिन, यह भी इक हकीकत है

कभी लगती बड़ी अच्छी, कभी नाकाम ज़िंदगी  


जो कोई समझ पाए तो बतादे इसकी परिभाषा

महज़ चलती हुई साँसों का ही क्या नाम है ज़िंदगी  



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