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Dr Baman Chandra Dixit

Abstract

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Dr Baman Chandra Dixit

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धोबी का कुत्ता

धोबी का कुत्ता

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पूछता फिरता हूँ पता खुद ही से खुद का

धोबी का कुत्ता हूँ मैं घर का ना घाट का ।।

सफ़र यहां से वहां रास्ते से यारी की

नासमझों से हूँ सुनता बातें समझदारी की

किसे सुनाऊं किस्से मेरी मजबूरी का।

धोबी का कुत्ता हूँ मैं घर का ना घाट का।।

बिफ़र रहा है वहां रिश्तों का कारवाँ

आश अशेष और प्यास के दरमियाँ

समेट रहा हूँ यहां मलवा उम्मीदों का

धोबी का कुत्ता हूँ मैं घर का ना घाट का ।।

मुसकाना भूल बैठा खुशियां रूठी हैं

फिर भी फैली होंठों में हँसि ये झूठी हैं

रात बरसात की और दीदार-ए चाँद का,

धोबी का कुत्ता हूँ मैं घर का ना घाट का।।

उधर की नाख़ुशी को इधर का बेचैनी

जिधर देखूं है दिखता वक्त का मनमानी

निगाहें बेगाने और आँखें हैं अपनों का ।। 

धोबी का कुत्ता हूँ मैं घर का ना घाट का।।

किधर से क्या मिलेगा सोचना फिज़ूल है

नफ़रत दोनों तरफ़ से करना कुबूल है

नुकसान में भी नफ़ा अपना ब्यापार का

धोबी का कुत्ता हूँ मैं घर का ना घाट का।।


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