माँ
माँ
सालों गुजर गए तेरे गुजरे हुए ,
मैं मान गया मगर ,
मन मानता नहीं ।
आज भी तू ऐसी ही बैठी है
मेरे मन की बरामदे की चौपाई में ,
और नियंत्रीत करती है
मेरी वजूद को
जैसे निगरानी करती थी तू
तेरी बसाई हुई दुनियाँ को
बैठे बैठे निगाहों की चौकसी से ।
आज इस चिपचिपी दोपहरी में
जब काम से लौटता हूँ ,
पसीने की बदबू मेरे बनियान का
याद दिला जाते तेरे आँचल की ,
जिस से तू पोछ दिया करती थी
पसीने की बूंदों को मेरे कपाल से ,
और खुसबू सी लगने लग जाती
ये बदबू मेरे पसीने की ।
तू माँ थी , बाप थी , गार्जियन थी
मालकिन थी और निगेहबाँ भी ।
उजड़ते उजड़ते सजड़ रहे
संसार का
नींव ही तू थी ,
और उस नींव में बंधी रस्सी का
एक छोर था मैं ।
हमेसा तुझ से जुड़ा मगर
तुझ से जुदा था मैं ।
..........
शायद इसलिए
तू दू...र निकल गयी
और
तुझ से दूर रह गया मैं ।
मगर आज भी इस छोर में हूँ
घूमता हूँ फ़िर भी दायरे में हूँ ।
लगता है अब थकने लगा हूँ
चलते चलते अब रुकने लगा हूँ ।
जरा सरका दे तेरी गोद को माँ ,
मैं पड़ा रहूँ चुपचाप और
सहला दे
मेरे सर को मेरी माँ ।
अब भी अधूरा है सफ़र
मंजिल कोशों दूर ।
हकीकत में ना सही
ख्वाबों में मिलती तो रोज़ ।
नाकाम अटका हूँ मझधार में
देख तो रही होगी
कामयाबी बुनने का हुनर
जरा सीखा दे न माँ ।।
