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Dr Baman Chandra Dixit

Tragedy

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Dr Baman Chandra Dixit

Tragedy

माँ

माँ

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 सालों गुजर गए तेरे गुजरे हुए ,
मैं मान गया मगर , मन मानता नहीं ।
आज भी तू ऐसी ही बैठी है
मेरे मन की बरामदे की चौपाई में ,
और नियंत्रीत करती है मेरी वजूद को
जैसे निगरानी करती थी तू
तेरी बसाई हुई दुनियाँ को
बैठे बैठे निगाहों की चौकसी से ।

 आज इस चिपचिपी दोपहरी में
जब काम से लौटता हूँ ,
पसीने की बदबू मेरे बनियान का
याद दिला जाते तेरे आँचल की ,
जिस से तू पोछ दिया करती थी
पसीने की बूंदों को मेरे कपाल से ,
और खुसबू सी लगने लग जाती
ये बदबू मेरे पसीने की ।

 तू माँ थी , बाप थी , गार्जियन थी
मालकिन थी और निगेहबाँ भी ।
उजड़ते उजड़ते सजड़ रहे संसार का
नींव ही तू थी ,
और उस नींव में बंधी रस्सी का
एक छोर था मैं ।
हमेसा तुझ से जुड़ा मगर
तुझ से जुदा था मैं । ..........
शायद इसलिए तू दू...र निकल गयी
और तुझ से दूर रह गया मैं ।

मगर आज भी इस छोर में हूँ
घूमता हूँ फ़िर भी दायरे में हूँ ।
लगता है अब थकने लगा हूँ
चलते चलते अब रुकने लगा हूँ ।
 जरा सरका दे तेरी गोद को माँ ,
मैं पड़ा रहूँ चुपचाप और सहला दे
मेरे सर को मेरी माँ ।
अब भी अधूरा है सफ़र
मंजिल कोशों दूर ।
हकीकत में ना सही
ख्वाबों में मिलती तो रोज़ ।
नाकाम अटका हूँ मझधार में
देख तो रही होगी
कामयाबी बुनने का हुनर
 जरा सीखा दे न माँ ।।


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