कहते कहते
कहते कहते
कहते कहते जो कुछ कह भी दिया ,
सुनने वाले पे फर्क कुछ पड़ता नहीं ।
अब सोचता क्यों कहूँ कहना जो था
कहना जब कोई मानता नहीं ।।
जानता था यह है अंधों की नगरी
आईना बेचने फिर भी निकल पड़ा ।
अब समझ चुका नासमझ था मैं
बंदरी में मोती माला जचती नहीं ।।
सुन लेते बहरे भी ,बात काम का जो है
अनसुना करजाते कान वाले यहां
फिर भी गाता धुन राम नाम का
लंका में बिभीषण होगा तो कहीं ।।
भटकता दर बदर ठोकोरों के बाद भी
ठिकाने की तलाश आज भी है कायम
तालियों का ख्वाहिश रखता नहीं था
गालियों की उम्मीद लेकिं थी तो नहीं ।।
मत देखो मत सुनो मत कहो मंजूर है
करो तो करो सच्चा काम लेकिन
वरना खुद की नज़र में खुद ही
अनजाने में गिर ना जाओ कहीं ।।
