तुम कितनी अच्छी हो
तुम कितनी अच्छी हो
तुम कितनी अच्छी हो ,
सुनने को तरस गये थे कर्ण ,
सत्ताइस सालों से ....
कोई अच्छाई तब नज़र ,
आती ही नहीं थी उन्हे ,
मेरे अस्तित्व के ख्यालों में |
मैं दिन रात खटती रही ,
फिर भी सुनती रही ,
ताने और गालियाँ ,
वो रोज़ मुझ पर तंज कस ,
अपनी मर्दानगी से ,
करते रहे शैतानियाँ |
मेरा रोम - रोम ,
छलनी होता रहा ,
मैंने तब भी उफ़ ना की ,
तुम कितनी अच्छी हो ,
ये शब्द सुनने की ,
कभी उनसे ज़िद ना की |
उनका प्यार मेरे लिए ,
झूठा या सच्चा ....
मुझे पता नहीं ,
मैं भोली हर बात मान ,
उनके सपनो को ,
पूरा करने में लगी |
फिर एक दिन ,
वक़्त ऐसा आया ,
जुदा होकर दिल घबराया ,
उस वक़्त मेरी कीमत का ,
शायद उन्होंने खुद से ....
अंदाजा लगाया |
तुम कितनी अच्छी हो ,
पहली बार .....
ये शब्द लिख भेजे ,
मैं बेचैन सी होकर ,
कितनी बार लेती ,
उन शब्दों के फेरे |
प्यार में विरह भी ,
होता कितनी जरूरी ,
ये जान लो यारा ,
वरना साथ चलते चलते ,
कभी ना मिलेगा ,
ऐसा एहसास प्यारा ||

