STORYMIRROR

Praveen Gola

Tragedy

4  

Praveen Gola

Tragedy

मैं समझ नहीं पाई...

मैं समझ नहीं पाई...

1 min
354


उस दिन मैं समझ नहीं पाई,

सब कुछ सहा, पर कह नहीं पाई।

खुद को सँभालने की थी कोशिश,

पर ज़ख्मों की सूरत गढ़ नहीं पाई।


यूँ अचानक किसी ने पकड़ लिया,

मेरी हँसी से हक ही छीन लिया।

बाहों में बाँधकर अपनी हवस से,

मासूमियत का मेरा रंग छीन लिया।


मैं पत्थर सी रह गई उस घड़ी,

ना आवाज़ निकली, ना कोई लड़ी।

तन काँपता रहा, मन चीखता रहा,

पर आँखें थीं कि चुपचाप पड़ी।


लोगों की नज़रों ने और जलाया,

सवालों ने हर लम्हा डराया।

कभी मेरी चुप्पी पे चर्चा हुई,

कभी मेरी चूड़ियों ने शोर मचाया।


अब डर से मैं कांपती नहीं,

हर चोट पे आँसू बाँटती नहीं।

वो शाम थी पर मेरा अंत नहीं,

मैं टूटी थी, पर अब हारती नहीं।


अब और नहीं सहूँगी मैं,

हर दीवार को ढहूँगी मैं।

जिसने मेरी रूह को रौंदा था,

उसी दुनिया में अब चलूँगी मैं।












এই বিষয়বস্তু রেট
প্রবেশ করুন

Similar hindi poem from Tragedy