अजीब सी मोहब्बत है मेरी, राज़ों से भरी,
राज़-राज़ रखते हुए, एक राज़ बन गई।
लब खामोश रहे मगर दिल ने बात की,
तेरी याद हर लम्हे में आवाज़ बन गई।
छुपा लिया था तुझे सबसे इस तरह मैंने,
कि तू मेरे वजूद की ही पहचान बन गई।
तेरे जाने के बाद भी तू गया नहीं,
हर तन्हा शाम तेरे ही अंदाज़ बन गई।
इश्क़ में हद से बढ़ गए हम कुछ इस तरह,
सज़ा भी हमारी अपनी साज़ बन गई।
किसी को क्या ख़बर मेरी तन्हाई का,
जो दर्द था सीने में, वो आज़ बन गई।
'प्रवीण' ने छुपा रखे हैं जज़्बात इस तरह,
कि हर खामोशी मेरी अब अल्फ़ाज़ बन गई।