हवस
हवस
कभी जिनसे उम्मीद थी रोशनी की
उन्हीं की वजह से.. अंधेरे मिले हैं
मेरे जन्मदाता ने ही मुझको लूटा
सभी से मेरा आज विश्वास टूटा
माँ ने कभी हमको नाज़ों से पाला
अपाहिज बहन को भी लाडों से पाला
विधाता ने जाने खलल क्यों ये डाला
मेरी माँ को बेवक्त....क्यों मार डाला
कमाती थी माँ... घर चलाती थी माँ
पति से भी रोजाना... पिटती थी माँ
सभी दर्द सहती... चुप रहती थी माँ
पिटकर भी काम करने जाती थी माँ
पिता ने कभी... कुछ कमाया नहीं था
कभी ख्याल मेहनत का आया नहीं था
पिता था शराबी ...मुझे बेच... डाला
घर को भी उसने बना ,चकला डाला
अपाहिज सुता पर... तरस कुछ ना खाया
उस पर तो कुछ ज्यादा ही जुल्म ढाया
यहाँ से भी नोचा,वहाँ से भी...नोचा
बताऊँ मैं कैसे कि... किस-किसने नोचा
हवस की निशानी... मेरी कोख में है
मैं लूँ नाम किसका,न दिल होश में है
अपनों की, किससे कहें ये कहानी
हमारी तो दुनिया हुई है वीरानी
जमाने को मुँह अपना कैसे दिखाएँ
भला अपना दुखड़ा किसे हम सुनाएँ
उजाले हमें आज... भाते...नहीं हैं
अंधेरे हमें.... रास....आते नहीं हैं
मगर फिर भी *मजबूरियाँ हैं* हमारी
अंधेरे... हमें.... रास....आने लगे हैं
खुद से ही शर्मिन्दा हैं इसलिए अब,
अंधेरे हमें.....आज....भाने लगे है।
