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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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फिऱ से जिंदा

फिऱ से जिंदा

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सूर्य उदय हो चला है

सवेरा भी अब हो चला है

जाग जा रे मुसाफ़िर

तू फिर से जिंदा हो चला है


कब तक सोया रहेगा

कब तक सांसे खोया रहेगा

उठ जा,

लक्ष्य तेरा जवां हो चला है


कर्म पथ पर,

विजय वो होता है

जिसका पत्थर पर

निशाँ हो चला है


जाग जा रे मुसाफ़िर

तू फिर से जिंदा हो चला है

तुझे जीवन मे गर

सफल होना है


शूलों को सदा मानना 

फूलो का दोना है

शूलों से ही

तेरा नाम गुलाब हो चला है


आलस्य को त्याग दे

नई सुबह को तू प्यार दे

तेरी मोहब्बत से

ख़ुदा का भी सज़दा हो चला है


जाग जा रे मुसाफ़िर

तू फ़िर से जिंदा हो चला है

ये वक्त न लौटेगा

फ़िर क़भजान ले,तू मान ले

ये सुनहरा अवसर ही

तेरा स्वर्ण कलश हो चला है


ख़ुद को पहचान भी ले साखी

ये वक्त का वो पहिया है

जिनसे ही तेरा जीवन

सुखी औऱ दुःखी हो चला है


जाग जा रे मुसाफ़िर

तू फ़िर से जिंदा हो चला है।


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