उस रात भूत था क्या!
उस रात भूत था क्या!
पूरी भीड़ थी उस शामियाने के अन्दर
पास कोई दो किलोमीटर की दूरी पर,
राम लीला की आखिरी रात थी,
ठंड का महीना था,गर्म कपड़े बदन पर,
दोस्तों की टोली भी साथ थी,
वैसे तो गांव में छुप छुप कर,
वीसीआर पर फिल्म देखने का अनुभव था,
परंतु दोस्तों की सलाह पर,
दूसरे गांव का साहस पहली बार संभव था।
कदम चल पड़े थे राह पर,
बांस के खंभे किनारे बैठ गए तिरपाल पर,
कुर्सियों पर गणमान्य लोग विराजे थे,
मंचन शुरू रावण के ठहाकों वाली चाल पर,
राम खुद को अदभुत साजे थे,
लाली साफ झलक रहा था उनके गाल पर ,
कुछ ही देर में मैं जमीन पर पसर गया था,
मैं न जाने कब सो गया था,
राम लीला का सारा नशा उतर गया था,
घड़ी देखा सुबह का 3 हो गया था,
अच्छाई जीत गई थी,रावण मर गया था,
जल्दी से घर की दूरी को मुझे नापना था,
भागते कदम थे झुरमूटों से सामना था,
सहसा ठहाका सा लगा मेरा मानना था,
गांव के बाबा से तो भूतों का कापना था,
कोई जगा तो नहीं घर ये भांपना था,
देखा आगे गांव के बाग के मकान वाले,
ठहाके लगा आग ताप रहे थे,
हम तो ठहरे दौड़ते हुए और थकान वाले,
अंदर ही अंदर कांप रहे थे,
घूर रहे थे मुझको चाय की दुकान वाले,
पता नहीं चला कब मैं घर था,
तकिए के ऊपर मेरा सर था,
जाड़े की रात में माथा तर था,
नीद खुली मम्मी का स्वर था,
बुखार था,कंबल ऊपर था।