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Sachhidanand Maurya

Abstract

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Sachhidanand Maurya

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रातों को जो माताएं कह जाती हैं

रातों को जो माताएं कह जाती हैं

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हुईं थी इसी समाज में, 

इसी समाज की सदाएँ कह जाती हैं,

सोने से पहले रातों को,

जो हमसे हमारी माताएं कह जाती हैं,


सुनने को तो और भी

 कहानियां मिलती हैं हमे मगर क्या कहें,

उन कथाओं के आनंद सा,

कुछ भी नहीं इनकी अदाएं कह जाती हैं।


कड़ियां बंधी होती हैं,

हार में फूल की लड़ी की तरह,

नौ रस टपकते हैं इनसे,

घर शहद ज्यों टपके मधुमक्खी की तरह,

सुध बुध खोकर भी

सोते नहीं हैं हम रातभर,

मानो झूम रहें हो पी मधु दो बूंद जिंदगी की तरह।


कहीं राक्षसों का वध,

तो कहीं वीरता का विराट प्रदर्शन मिलता,

कहीं परी,कहीं सुंदरी,

कहीं राजकुमारियों का जीवन मिलता ,


कहीं आदर्शों की अमिट,

छाप दिखाई देती है तो,

कहीं जुड़ता है तादात्म्य,

कुछ इस तरह की अपनापन लगता है।


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