उल्फत के सौदागर
उल्फत के सौदागर
उल्फत की सौदागर मैं, उल्फत ही मेरा धन है।
कण कण धरा का उल्फत ही, उल्फत ही मन है।।
उल्फत देती ये वसुधा भी, मैं भी उल्फत देती हूं।
उल्फत उपजा कर अंतर में, उल्फत ही भर देती हूं।।
तुम भी बनो उल्फत के स्वामी, श्रीकृष्ण से कर उल्फत।
प्रेम जगा कर कण कण में, बनो तुम प्रेम का ही दर्पण।।
उल्फत से ही तो सजा है, वसुधा का ये कण कण भी।
भूलकर स्वार्थ, अहम को, क्या तुमने पहचाना भी कभी।।
जब जब बनते उल्फत के सौदागर, निश्वर्थ प्रेम उपजाकर।
कण कण फिर तो मुस्काता है, प्रेम अंतर मन में उपजाकर।।