अज्ञान और मानव
अज्ञान और मानव
जो जाना निरीह जीवो ने,
क्या हमने वो पहचाना है।
प्रकृति की वैभवता को,
क्या कभी पहचाना है।
मानव के स्वार्थ कर्मो से,
वसुधा भी तो सिसक रही।
प्रेम की पौध न जाने क्यों,
क्यारी में न पनप रही ।
प्रकृति का प्रचंड रूप देख,
पशु भी देखो अकुलाया है।
मानव ने न कुछ समझने का,
मिथ्या अभिमान बनाया है।
आज मानव के कर्मों से,
विनाश के बादल छाए है।
मानव ने तो न देखे ये बादल,
पशु समझदारी बनाए है।
प्रकृति संग बड़े चलो,
आज पशु सिखला रहे।
अपनी वाणी में देखो,
वो विनाश विनाश चिल्ला रहे।।