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Arunima Bahadur

Action

4  

Arunima Bahadur

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तोड़नी होगी जंजीरे

तोड़नी होगी जंजीरे

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नित आशाओं की किरण जगा,अपने पिंजरे को निहारती है।

पैरो के अपने बंधन को,वो न जाने कब से स्वीकारती जाती है।


कभी आंख में नीर भरे है,कभी मुख पर एक मुस्कान भी है।

कभी पिंजरे की आदत सी है,कभी चाहत एक आजादी की है।।


कभी निहारती पंख वो अपने,जो परदे में कब से छिपे हुए।

कभी सोचती जाती वो,मुझसे ही छीनी ये आजादी क्यों है।।


कभी स्वीकार गुलामी वो तो,बच्चो को अपनी राह चलाती है।

गुमनामी के अंधकार में ,अश्कों में भीगी एक चाहत भी है ।।


हार मान कर जब जब उसने,स्वीकारा अपनी गुलामी को।

बेडिया बांधती ही गई,तब तब हर नारी के ख्वाबों ख्यालों को।।


एक ने स्वीकारी जो जंजीरे,कड़ी गुलामी की वो ही बनी।

नारी के बंधनों की गाथा,कुछ नारियों ने ही सदा लिखी।।


जिसने पाई स्वतंत्र उड़ान,चमकता एक सितारा वो बनी।

वरन नारिया एक पिंजरे में, दिखावे का एक समान बनी।।


युग बदल रहा नारियों,बदलना होगा अपनी सोच को।

त्यागना होगा कामिनी रूप,जाग्रत करना अपनी शक्ति को।।



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