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Ramashankar Roy 'शंकर केहरी'

Fantasy

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Ramashankar Roy 'शंकर केहरी'

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स्तम्भदीप बन जाऊँ

स्तम्भदीप बन जाऊँ

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202

चाह नहीं बहती नदी बन जाऊँ

छोड़ मीठा झरना खारा पानी बन जाऊँ ।।

ठहरा कुआँ हूँ कुआँ ही रहने दो

ऊपर आकर प्यासे का प्यास बुझाने दो।।

चाह नहीं पतंग की ऊंचाई पा जाऊँ

अपनी डोर गैरों के हाथ पकड़ाऊं ।।

जंगल का ऊँचा वृक्ष बन लेने दो

सबसे पहले बादलों को चूम लेने दो ।।


चाह नहीं अभेद्य दीवार बन जाऊँ

बदलाव की हर बयार रोक पाउँ ।।

पूर्व की ऊंची खिड़की ही बन जाने दो

नई रोशनी व ताजी हवा अंदर लाने दो ।।

चाह नहीं महान धर्मनिर्पेक्षि कहलाऊँ

गैर मजहबों को गलत ओछा बतलाऊँ ।।

इंसान हूँ , एक सच्चा इंसान ही बन पाऊँ

हिन्दू हूँ जन्मजात हिंदुस्तानी ही बन जाऊँ।।

चाह नहीं सबसे पहले अपनी मंजिल पाऊँ

बस सही रास्ते का स्तम्भदीप बन जाऊँ ।।



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