सोच एक अजनबी की....
सोच एक अजनबी की....
उन्हें देखा तो क्यों ऐसा लगा,
जैसे हम पहले भी मिले हैं कहीं।
पर पूछने की हिम्मत नहीं हुई,
सोच के कहीं वो मेरे जैसे सोचते तो नहीं।
ये सोच भी कितनी अजीब है,
मन ही मन में सवाल जवाब भी करता है।
कभी बोलने में रुकावट होती है,
कहता है काश वो उनकी सोच से भी मिलता हो।
सोच सबको अपने काबू में रखता है,
और ये सब ये आंखें देखती रहती हैं।
नज़र हटाने से भी नहीं हटती,
और दूर से ही सही उनको ताकती रहती है।
जब ये सोच यादों को ढूंढता है,
कुछ पल के लिए अतीत में चला जाता है।
कुछ यादों को ताज़ा कर देता है,
और सोये हुई कुछ सपनों को जगा देता है।
सोच सोच में भी अंतर होता है,
कुछ अच्छे होते हैं और कुछ बुरे होते हैं।
पर न जाने ये कैसी सोच है,
जो कभी समझ कर भी समझ में नहीं आता हैं।
कभी ये सोच हमें मिला देती है,
अनजाने में नजदीकियां भी कैसे बढ़ जाती है।
ये भी किसी को पता नहीं होता है,
और कोई इस सोच के आनन्द को नहीं भुला पाता है।
कभी ये सोच ऐसा करती है,
आपस में एक दूसरे को लड़ाने लगती है।
एक पल में रिश्ते टूट जाते हैं,
ज़िन्दगी भर के लिए दर्द से दिल दुखता है।
यही सोचते सोचते करीब आ गये,
ना हमें पता चला न उनको पता चला,
ये तो अपने आप जैसे हो गया,
क्योंकि हमें आमने सामने होना ही था।
तब ठीक से देखने से लगा,
ये वो तो नहीं जिसे मैं ढूंढता फिर रहा था।
वो भी मुझे देखकर चली गयी,
वो भी मायूस थी, फिर मैं किसको बताता।
तब फिर ये सोच बदल जाती है,
कहती है वो तो अजनबी है मेरी क्या लगती है।
सच में सोच अजीब हरकतें करती है,
सोच एक अजनबी के लिए क्यों पैदा होती है?
पर तब ये सोच फिर कहती है,
मेरा क्या कसूर?
ये मन तो नहीं मानता,
मुझे वो मजबूर कर देता है,
कि एक अजनबी के लिए अपने आप आ जाती है।
और भी सोच एक सवाल करती है,
वो अजनबी था या कोई बहाना था?
पुराने रिश्ते भूलने की कोशिश में,
दर्द में छुपी एक अजनबी की थी!
अब सोच भी फिर सोचने लगी,
क्यों कोई अजनबी ऐसे अपना लगने लगता है?
मन का भ्रम है या कुछ और,
जो सोच एक अजनबी के लिए पैदा होता है।