सुदूर ग्रह का परदेसी
सुदूर ग्रह का परदेसी
गहन निंद्रा में थी कि थपथपाया किसी ने मुझे,
घबराकर खोली आँख खड़ा था सामने युवक एक अनजान,
भर गया था रोशनी से कमरा आँखों में लग रही थी चौंध,
मुँह से न निकल पा रही थी आवाज़ बस देख रही थी मंत्रमुग्ध सी उसे,
कहा उसने कुछ पर समझ न पाई मैं भाषा उसकी।
अचानक पकड़ हाथ मेरा ले गया वह बाहर मुझे,
खड़ी थी बहुत बड़ी उड़न तश्तरी वहाँ, चौंक गई देख उसे मैं,
ले गया उसके अन्दर वह मुझे, लगा ज्यों हो वह देश परियों का,
पकड़े रहा मनमोहक युवक हाथ मेरा, स्पर्श था रोमांचकारी,
लग रहा था पकड़े रहे वह सदा यूँ ही हाथ मेरा आजीवन।
उसने किया कुछ इशारा और उड़ चली उड़न तश्तरी किसी सुदूर ग्रह की ओर,
पता ही न चला बीत गया समय कितना, खोई रही मनमोहक के नशीले स्पर्श में,
कहीं उतरी उड़न तश्तरी, उतारा उसने धीमें से प्यार से मुझे एक अनजान ग्रह पर,
लगे तैरने हम उस अद्भुत से ग्रह पर, पकडे़ रहा हाथ वह लगातार मेरा,
कितनी सुन्दर थी वह दुनिया, धरती से परे, परन्तु था सबसे अनोखा मेरा परदेसी,
समय पंख लगा उड़ चला, ले आया उड़न तश्तरी में मुझे फिर से वह सुदूर ग्रह का परदेसी,
चल पड़ी न जाने कहाँ, मैं तो रही खोई प्यार भरे उसके जादुई स्पर्श में,
थपथपाया किसी ने मुझे जो़र से, खुली आँख खड़ी थी सामने माँ,
हुआ न विश्वास, भागी मैं बाहर, थी न कोई उड़न तश्तरी वहॉं, चला कहाँ गया वह?
माँ थी हैरान परेशान देख दशा मेरी, आँखों से मेरी बह रही थी लगातार अश्रु धारा।
उतर गई थी तस्वीर उसकी ऑंखों के रास्ते दिल में, थी एक चुभन सी ह्रदय में,
क्या स्वप्न भी दिख सकता है सत्य की भाँति, क्या कभी होगा स्वप्न यह सत्य मेरा?
क्या आयेगा सुदूर ग्रह का परदेसी थामने कभी बाँह मेरी?
और एक दिन आ गया वह सुदूर ग्रह से न सही परन्तु दिखता बिल्कुल वैसा,
ले माँ, पापा का आर्शीवाद, थाम हाथ ले गया घुमाने देश एक सुदूर।
