स्तब्ध हूं
स्तब्ध हूं


स्तब्ध हूं, निराश हूं,
देख तेरा हाल।
जानें क्यों भटक गया,
आचार से इंसान।
स्वयं का शत्रु बना,
क्या यह बवाल।
इंसानियत की रीत त्याग,
पशु हुआ इंसान।
जानें क्यों भूल गया,
धर्म का तू ज्ञान।
क्यों प्रीत की परंपरा भूल,
प्यासा खून का इंसान।
अब तो तार तार हुए,
शर्म और सम्मान।
अहम के अधीन हो,
खुद ही बिक गया इंसान।
हर दर पे दुकान सजी,
खरीद ले अभिमान।
खुद का भी मंथन कर ले,
क्यों मूल को भूला इंसान।