पोटली
पोटली


मैं तो पोटली बांध कर ही चला था,
कुछ सपने ही ले कर चला था।
रास्ते में नए विचार मिल गए,
कुछ अहम, कुछ अधिकार मिल गए,
मैं उन्हें भी समेटता चला।
थोड़े से टुकड़े धोखे के भी मिले,
स्वार्थ के कंकर भी हाथ लगे।
मैं तो द्वेश भी बटोर चला था,
रास्तों से थोड़ी पीड़ भी ले चला था।
चलते चलते वो पोटली से गिरती गई,
मेरी सोच भी साथ बदलती गई।
वो बचपन मेरा, अब गुज़र चुका था,
भोला पन भी अब छूट चुका था।
जीने के मायने अब बदल गए थे,
मुझे कुछ लोग मिल गए थे।
मुझे तृप्त करते, अपने मिल गए थे,
पुराने रिश्ते अब बेकार हो गए थे।
अब मैं यह भ्रम पाल चुका था,
पोटली का सामान, अब बदल चुका था।