हिन्दी की पहचान
हिन्दी की पहचान
अपने देश में,
ख़ुद की पहचान को
आज तरसती है हिन्दी।
विदेशी मोह में
अपनों के बीच ही,
दम तोड़ती अब हिन्दी।
विदेशी शब्दों से
जाने कब क्यों,
भ्रष्ट हो गई हिन्दी।
क्षेत्र वाद के नारों से,
अब त्रस्त हो गई हिन्दी।
सर का ताज जो कभी थी,
अब घुटनों पर आ गई हिन्दी।
जिसने जोड़ा कभी जन जन को,
बिखर चुकी है अब वो हिन्दी।
मात्र भूमि पर ही
हेय नज़रों से अब,
जानें क्यों देखी जाती हिन्दी।
थोड़ा तरस तो इस पर खाओ,
जन मानस की जुबां से ओझल
होती जाती अब हिन्दी।
तू परदेसी, मैं अमुक प्रदेश से,
इन दोनों के बीच में अब
रोज़ पिसती जाती हिन्दी।
अपने ही देश में
ख़ुद की पहचान को,
आज तरसती क्यों ये हिन्दी।