रूह का रुदन!
रूह का रुदन!
तन्हाईयों की चादर पर
कोरी चांदनी छिटकी है;
सन्नाटें में मेरे दिल की
तमाम धड़कनें कैद है;
मर्म में डूबे "प्रखर" ने
ये प्रेम कविता लिखी है;
झुलसती ख्वाहिशों की
अब मुँदती हुई पलकें है;
प्रखर की सांसों की तमाम
हलचलें जैसे नाकाम सी है;
पिघलती रूह का करुण
व ख़ामोश ये रुदन है;
ये सब तुम्हारी ही प्रतीक्षा
में हिचकी बनकर अटके है;
तुम आकर इन सब को अपनी
सांसों के क़र्ज़ से निज़ाद दिला दो;
यूँ क़र्ज़ तले इन सांसों के
जीना भी कोई जीना है!