मैं क्या जानूँ
मैं क्या जानूँ
प्राणों में बस कर
चिंगारी कोई सुलगती
पीर ह्रदय की
पलकों में आकर उलझती
दुष्कर बंधन सीमाओं के
क्योंकर मैं मानूं
प्रियवर इस दुष्कर को
तुम जानो मैं क्या जानूँ
प्यासे अधरों का स्पर्श पाकर
बूझते सांसें निरंतर
मिटने का स्वाद चखकर
ज्वाला फिर भी शेष रही
क्षार क्षार तृप्त मर्म को
क्योंकर मैं बांचूं
प्रियवर इस नश्वर को
तुम समझो मैं क्या समझूँ
कुलबुला रहे
उडगन पहरों के
पनप रहे प्रवाासी आँसू
नयनों के
कुम्हलाये कोरों में
स्वप्नो के फू झरे
विदाई के गीत
क्योंकर मैं गाऊं
प्रियवर चितवन की निधियों को
तुम समेटो मैं क्या समेटूं
खो रहे जीवन को
पालकी को तुम ढोओ
मैं क्या ढोऊं
प्रियवर इस दुष्कर को
तुम जानो मैं क्या जानूँ