नौका मेरी छूट गई
नौका मेरी छूट गई
चेष्टा थी तेरे लावन्य से
धूप की सरिता बहाऊं
सूरज के लालित्य को
नौका में भरभर ले जाऊं
दुर्भाग्य मेरा था
यादों के दलदल में
नौका मेरी छूट गई
हाय! मेरी मनसा ही रूठ गई
जाड़ो की ठिठुरन भरी रात में
आकांक्षाओं की तिमिरारी ठहरी थी
बंद कपाटों में रखी थी सोच की पोटली
जिसमें सूनेपन की लकीरें गहरी थी
हाहाकार यह कैसा था
नयनों के नीर से चोटिल
नौका मेरी टूट गई
हाय! वह मेरा सर्वस्व ही लूट गई
अस्तव्यस्त मन की धड़कन
मुखड़े में उभरी व्यथाओं की भिनभिन
सहानुभूति की बेकली में क्यों मांगते हो
निस्पृह मौन का आश्वासन
सान्त्वना यह कैसी है
झंझावाती शब्दों के प्रहारों से
नौका मेरी डूब गई
हाय! उद्गारों के चप्पू को बना ठूठ गई!