छंद नहीं
छंद नहीं
रच रहा जिसे गीत में
क्या तू है वह छंद नहीं !
व्यस्तता का बहाना बनाकर
यूं दूरियां न बढ़ाया कर
बहकर एकाकी जीवन में
यूं सन्नाटों को न चिढ़ाया कर
बरखा में ढह रहा घर मन का
क्या अश्रुओं का वेग मंद नहीं !
घुट घुट कर जीने से अच्छा
मौत को गले लगाने में अच्छा
खुद को खोने की इच्छा कर
पाने की तलब बढ़ाने से अच्छा
जहां छाये बेहोशी पल में
क्या लेनी वह सुगंध नहीं !
मानव बन भेड़िये घूमते हैं
छल कपट के न्यौते भेजते हैं
नोचते हैं जो गिद्ध की तरह
क्यों इन निशाचरों से जूझते हैं
किया बध जिसका वन में
क्या वह निशाचर कबंध नहीं !
आंखों को पढ़ बात समझ ले
चेहरों पर चेहरे समझ ले
उसे तज तू अपनी बात रख
धार शब्दों की तू परख ले
सपने देखें उन आंखों में
क्यों जिनमें सुप्रबंध नहीं !