है यह जाड़े की शाम प्रिये!
है यह जाड़े की शाम प्रिये!
थर थर कांपे तन
सघन होते वन
सुधा गरल पीकर
है टूटे अश्रु अविराम प्रिये!
ना सिसकारी
ना किलकारी
बंद कपाट मंदिर के
है सूने पनघट औ'धाम प्रिये!
ऋतु बदली दिन बदले
न पपीहा पी पी बोले
न ही कोकिल कुहुके
है विहंगम अंतर्धान प्रिये!
टूटी सूखी विटप लतिकायें
खड़खड़ाती पल्लव कलिकायें
खांसते बूढ़े बरगद
है हुक्का हक्का बक्का
गुड़ गुड़ थाप प्रिये!
नीड़ों में है कंपन
मौन पदचापों का घर्षण
नयन बिछाये आस में
है पलक अकुलाहट में थाम प्रिये!
है विग्रह आग्रह कहाँ
है स्वर में कलह यहाँ
वे मधुर बातों का गुनगुन
है नहीं तबले की थाप प्रिये!
सूना प्रांगण सूना गगन
न गौ रंभाये
न पायल की रुनझुन
शरणागत के जर्जर चौबारे में
है यह जाड़े की शाम प्रिये!
वे लोरियाँ लोक गाथाएँ
रण बांकुरों की गूंजती सदायें
घुटी रह गई वादियों में
है बीत गई सन्नाटे की रात प्रिये!
कैसे ठहरूं कैसे ढोऊं
अतीत को बिसरा
कैसे बोझिल स्वप्नों में सोऊं
अब रो लूंं कि खुद पर हंस लूं
है यह ढाढ़स की शाम प्रिये!
सुविधाओं की चाह में
छले गये जो ठगों से राह में
अभावों के खंडहरों से
है पूछते निरीह अपनी थाह प्रिये!
उजड़े कुटुंब सारे
रूठे हैं क्यों नयनों के तारे
विकल हैं क्यों आंखें सूखी
पलायन का दंश झेले
है क्यों उदास यह ग्राम प्रिये!