वह औरत
वह औरत
जाने कब-कब मुस्काई थी वह औरत
जब से बेहया कहलाई थी वह औरत
जिंदगी का काजल पोंछने चली शहर
सिमटी सिकुड़ी सकुचाई थी वह औरत
घरों के बर्तन भांडे तन मन से धो धोकर
मालकिन की नजर में हरजाई थी वह औरत
उफ्फ! मर्दों की नजर थी कि कयामत थी
अस्मत के डर से घबराई थी वह औरत
उठती उंगलियों का खौफ़ न था उसे अब
कली थी कभी जो अब मुरझाई थी वह औरत
परखने वाले बहुत थे शायर जहां में मगर
किसी के गीतों में न नजर आई थी वह औरत
दर्द ने दिल से तड़प कर कहा एक दिन
जवानी में अश्कों से नहाई थी वह औरत
जागना भी कुबूल था उसे शब भर यादों में
रिश्तों का बोझ ढोते पछताई थी वह औरत
कई चेहरों में बंट गया था उसका चेहरा
अपनी बेगैरत पहचान छुपाई थी वह औरत