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Vikas Sharma Daksh

Abstract

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Vikas Sharma Daksh

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तब्दीलियाँ का दौर

तब्दीलियाँ का दौर

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समझता है सब मगर, नासमझ बनता है,

खबर है उसे कि आजकल सब चलता है।


ज़माने में तब्दीलियों का दौर है साहब, 

वरना इंसान कहाँ रोज ईमान बदलता है।


दिन लद गये है हौसलों पर ऐतबार के,

नजरों से गिरकर यहाँ कौन संभलता है।


नेकियाँ ना सही, गुनाह तो ज़बरदस्त हो,

मजलूम कहाँ रसूखदारों से अब डरता है।


नामुराद आदत है कहने-सुनने की हज़ूर,

खामोश रह कर अपना क्या बिगड़ता है।


सबर-ओ-सकूँ कहाँ मिले हमें, ए वाइज़,

दैरो-हरम में तो नफ़रतो-खौफ पलता है।


'दक्ष' किस मसले पे हो गुफ्तगू किसी से,

इंसान कम सुनता है, ज्यादा भड़कता है।


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