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Vikas Sharma Daksh

Abstract

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Vikas Sharma Daksh

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चढ़ते सूरज

चढ़ते सूरज

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ज़िन्दगी में तज़ुर्बात हमारे यूँ भी बढते रहे,

सुबह नये सूरज चढ़ते, शाम को ढलते रहे,


नये रंग, नयी होती है शक्सियत हर रोज़,

चेहरे के तास्सुरात लिबास से बदलते रहे,


मंजिले-मक़्सूद की इत्तिला सिर्फ उन्हें थी,

चुपचाप जो अपने मंसूबे बांध चलते रहे,


बहुत बातें थी अपने हक़ में कहने को,

मगर किरदार पे इल्ज़ाम तो लगते रहे,


रिश्ते निभाने के तौर से हुए ना वाक़िफ़,

लोग थे कि बसते रहे, हम कि उजड़ते रहे,


हर हादसा इक नया सबक तो सीखा गया,

ये और बात कि हर बार मरने से बचते रहे,


'दक्ष' फानी जहाँ में क्या मानी कौन सानी,

अंधेरे भी चढ़ते सूरज को सलाम करते रहे।


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