करूँ मैं क्या
करूँ मैं क्या
दिन भर की दौड़ धूप में
कछ बदल जाता हूँ मैं,
शाम को जो घर लौटू तो
खुद से मिलने से कतराता हूँ मैं।
करूँ मैं क्या ना चाहतें हुए भी,
इस समर में रोज़ कूद जाता हूँ मैं
करूँ मैं क्या, करूँ मैं क्या।
प्रबल होती हर एक इच्छा को
हृदय में ही दबा देता हूँ मैं
बस सांसें चलती रही
इसी उधेड़बुन में दिन काटता हूँ मैं।
करूँ मैं क्या, जीने के लालच में
रोज़ थोड़ा थोड़ा मर जाता हूँ मैं
करूँ मैं क्या, करूँ मैं क्या।
मुस्कुराना है जरूरी जीने के लिए,
रोज़ एक नकली हँसी चेहरे पे लगता हूँ मैं
कोई पढ़ ना ले कहीं इसलिए,
सबको लतीफे सुनता हूँ मैं।
करूँ मैं क्या, की जानता हूं ये ठीक नहीं,
फिर भी अपनों के लिए
गिरते हौसले को फिर से उठाता हूँ मैं
करूँ मैं क्या, करूँ मैं क्या।