मैं नदी छरहरी
मैं नदी छरहरी
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हाँ, मैं एक छरहरी सी नदी हूँ
बहते-बहते जो टकरा गई
एक पत्थर के सीने से।
प्यार से गले तो लगाया यायावर ने
पर कहाँ रास आती है पत्थर को
नमी बाँहें पसारे,
बहा दिया, ना थाम पाया
मेरी चंचल वृत्ति।
लहू-लुहान सी घाव झेले मैं चलती बनी
उसके वजूद को खुद में समेटे
एक छाप छोड़े उसके सीने पर
जो कभी नहीं मिटेगी।
भूलने वाली चीज़ नहीं मैं
ताउम्र उसकी स्मृतियों की संदूक में
रहूँगी जलती धूनी सी।