विचार-मन
विचार-मन


सांझ ढली, 'गोधूलि' गई पर खत्म न हुई 'बातें'
न जाने क्यूँ जुगनुओं संग जगती है रातें।
स्याह परत इक, सांझ जाते ही चढ़ जाती है,
साथ उसके ही रंगों का जमघट गुज़र जाता है,
रह जाता है स्याह, रंगविहीन क्षितिज,
जो ज़मीं-नभ में अब अंतर न कर पाता है।
मिलन के गवाह 'शून्य' और 'अनंत' हैं,
पर नभ के भेद, केवल 'आकाश-दीप'
स्याह अंधेरे हैं आकाश के, समझ के परे,
मिलकर भी जिसे नहीं बुझा पाते कई 'प्रदीप'।
उषा! सांझ! काश रात कोई बा
ँधे
जुगनुओं संग भी स्याह हो जाती है रातें।
शांत हो जाती है रात, रात ढलते ही,
खामोशी से भर जाते हैं प्याले रात के,
जब खामोशी से भी खामोश रहा नहीं जाता,
छलक ही पड़ते हैं प्याले बात के।
मिलन के गवाह 'शून्य' और 'अनंत' हैं,
पर खामोशी के भेद, केवल 'विचार-मन',
कितने ही विचार न जाने जगाये रखते हैं 'भीड़',
मन भागता है भले हो 'शिथिल-तन'।
आँख मूंद, विचारों को आकार देती हैं यादें
जुगनुओं संग, बोलती हैं खामोश रातें।