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Vikas Sharma

Abstract

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Vikas Sharma

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कवि और कविता

कवि और कविता

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जब मिले तन्हाई

दर्द भी बेतन्हा आये,

उसकी आह, जब जब शोर मचाये,

शब्दों में जब, दर्द ढल जाये।


कभी कविता, कभी ग़ज़ल

कभी गीत बन जाये,

घुट – घुट कर वो,

आशाओं के दीप जलायें।


उसका साया उसके ही कतराये

अखियों को आँसू भी तरसायें,

फिर बनती है एक कविता,

 सारे आसूँ शब्दों मैं ढल जाये।


खुद का करता हालें बयां जब,

महफिल से होकर दर्द गुजर जाये,

उसका तरुननम, उनका तरुनअम,

एक ही सुर में हो जाये।


कोई ना ढूंढे, रास्ता कोई,

हारे बेबसी सी छाये, 

कोई शब्दों से करताबयाँ,

और कवि हो जाये।


ये शब्द ही उसकी,

नयी सी दुनिया,

नया सफ़र और

नया हम सफर हो जाये।


जीवन को मिलती नयी सी मंज़िल

हर भी जीत के रंग मैं रंग जाये,

अपनी कविता से,

वो खुद जिये और

औरों को जीना सिखलाये।


वो नीरसता में,

बंजरपन में,

मुरझाया फूल खिलाये

खुद को सर्जन मिला ना हो चाहे,

वो ही सर्जनकर्ता बन जाए।


कवि कह अपनी कविता,

उसके सुख –दुःख

बन साकी उसके,

उसे खोये जहाँ में,

तवारुफ़ उसे दिलाये।


जीवन कला ये,

संघर्षों को जीना,

दर्द कभी हो,

तो क्या,

एक कविता और

बन जाये ! 


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