रोती मानवता
रोती मानवता
निभाते चले गए हम ज़िम्मेदारी
पर इससे क्या फर्क पड़ता है,
यहां सभी खुद के लिए जीते हैं
कितनों को दूसरों से वास्ता नहीं,
और कुछ गैरों के लिए जीते हैं
ख़ुदा नें सिर्फ इंसान बनाया था
मगर जमीं पर इंसानियत नहीं है ,
गरीब होना अभिशाप हो गया है
उन्हें कोई पूछनेवाला तक नहीं है,
मर गया शरीर ऐसे ही पड़ा है
आँचल खिंचता अबोध खड़ा है,
अनभिज्ञ है मृत्यु से वो बालक
उसे तो भूख की ज्वाला याद है,
मालूम है उसे की ये मेरी माँ है
सोई है अभी पर उठ जाएगी,
मेरी भूख को शमन करेगी
मगर उस शैशव को मालूम नहीं,
इस कलुषित संसार को छोड़ चुकी है
अब नहीं सहने होंगे ताने किसी की,
नहीं खाने होंगे ठोकरे दर-ब-दर
मगर उसकी मृत देह पूछती सवाल कई,
मानवता से मांगती अधिकार कई
मानव जब दूसरे मानव के काम न आया,
फिर वो मानव कहलाने के लायक नहीं
असहनीय पीड़ा में है मानवता आज,
मगर उनके साहूकारों को फुरसत नहीं
दूसरों के दुःख पर कोई हर्षित होता,
अपनें पर जब आये तो दुःखित होता
यही इंसानों की नियति बन गई है ,
दुःखित हूँ अब इंसानियत न रहा!