ये अदाएं...
ये अदाएं...
सहसा कलम चल पड़ी,
उंगलियों को झकझोर कर उठाया,
मन में चिंतन और चिंतन को
कोरे कागज़ पर उतारने को बोल पड़ी,
बोल पड़ी उनकी खूबसूरती उतारने को,
हृदय स्पंदित और श्वास गतिशील है,
उन्हें क्या उतारना, उन्हें देख खूबसूरती भी शरमा जाए,
काले, घने बाल जो बादल बन बरसना चाहते हो,
आंखें जैसे खुद में समंदर को समेटे हो,
जिसके असंख्य लहरों में डुबकियां लगाने को,
मन व्याकुल और हृदय विह्वल हो रहा हो,
होंठ जैसे गुलाबी पंखुडी हो जिसपर,
सुबह की ओस की पहली बूंद विद्यमान हो
और बूंद से सूरज की पहली किरण का
हृदय रसपान कर रहा हो,
बोल उठे दो शब्द वो तो,
कानों में शहद घोल जाते है,
शारीरिक कृति मानो की ईश्वर ने
विशेष समय ले उद्धरित किया हो,
पृथक कुछ भी नहीं रह जाता,
मन, मस्तिष्क और देह सब कुछ
समाहित हो जाता है,
प्रत्येक समय जब भी उनका स्मरण होता है,
कुछ और विषय शेष नहीं रह जाता,
केवल रह जाता है उनकी ही चाहत,
उनके रूप का बखान असंभव है,
उंगलियों ने कलम को तत्काल रोक दिया,
उपमा दिया सागर का उसने,
लोटे में समेटना असंभव है,
अतः उनके सौंदर्य का बखान दुष्कर है,
जिसे ईश्वर ने भिन्न और अनहद बनाया हो,
उसे काग़ज पर उतारना संभव नहीं...