कांच की दुनिया
कांच की दुनिया
देखी है मैंने एक कांच की दुनिया,
द्वेष, अहंकार भरे आंच की दुनिया,
भलाई के चोले में छिपे खुदगर्ज़ी के पुतले,
खो गई जाने कहाँ राम के सांच की दुनिया,
बदल रही है मानवता भी अब रंग रुप,
रोज़ दिखते स्वार्थी मंसूबों के छाँव धूप,
छलावे के जाने कितने मदारी मौजूद यहाँ,
चमचमाती पोशाकों में सज रहे अंध कूप,
सुझाव लेना अब कहाँ किसी को गवारा है,
जिसे देखो संग रखता अहम का पिटारा है,
वो कश्तियाँ हैं जो झूमती है सतह पर सदा,
वरना जंजीरों का ठिकाना, तो बस किनारा है
