मैं प्रकृति हूं...
मैं प्रकृति हूं...
![](https://cdn.storymirror.com/static/1pximage.jpeg)
![](https://cdn.storymirror.com/static/1pximage.jpeg)
मैं प्रकृति हूं...
निश्छल, निष्पाप है मेरा अंतर,
ममतामयी जननी अनूपा सुंदर ,
पालती पोसती हूं तुम्हें उम्रभर,
तुमसे मांगे बिना ब्याज और कर,
हे मानव!
तू इतना निर्दयी क्यों है बना,
सर से पांव तक स्वार्थ से सना,
मानव में दिखे मानवता का आभाव,
मृदा को नोचता, मृदा का ही जना,
हे मानव!
क्यों दया नहीं बची तेरे मन में,
स्वार्थी भाव पूरित जन-जन में,
क्यों नहीं सोचते हो मेरा संरक्षण,
प्रकृति प्रेम क्यों रिक्त मंथन में,
मैं जननी...
मैं मां समान ही तो हूं,
सदा तेरा पालन पोषण करती हूं,
बड़ा होकर तू भूल जाता है मुझे,
तेरे कृत्यों से मैं सदा मरती हूं...