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Nandita Majee Sharma

Abstract

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Nandita Majee Sharma

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धरा की तपन

धरा की तपन

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तपती धरती, जलता आकाश,

गिनती की बूंदें, लाखों प्यास,

जन जन के अंतर की दुविधा..

कैसे मिटाए क्षुधा.... कैसे मिटे क्षुधा....


नभ अग्नि रश्मि बरसा रही,

नीर कंठों को तरसा रही,

तपती जलती लू की लहरें,

जन जीवन को झुलसा रही,

जन-जन के अंतर की दुविधा..

कैसे मिटाए क्षुधा.... कैसे मिटे क्षुधा.…..


भू लोक में छाया हाहाकार है,

जीव जन्तुओं की यह पुकार है,

जलते ताप से रोकथाम मिले,

तन को तृष्णा से आराम मिले,

जन-जन के अंतर की दुविधा..

कैसे मिटाए क्षुधा.... कैसे मिटे क्षुधा.…..


प्यासी है नदियां, प्यासा सागर‌ भी,

कतरे-कतरे को तरसता गागर भी,

प्यासी धरा तड़प कर कराह रही,

तपती धूप से सबको बचा रही,

जन-जन के अंतर की दुविधा..

कैसे मिटाए क्षुधा.... कैसे मिटे क्षुधा.…..



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