मै प्रकृति हूं
मै प्रकृति हूं
मैं प्रकृति हूं...मां स्वरूप मेरा अंतर,
ममतामयी जननी अनूपा सुंदर ,
पालती पोसती हूं तुम्हें उम्रभर,
तुमसे मांगे बिना ब्याज और कर,
हे मानव!
तू इतना निर्दयी क्यों है बना?
सर से पांव तक स्वार्थ से सना,
मानवता का आभाव है मानव में,
मृदा को नोचें आज मृदा का जना,
हे मानव!
क्यों दया नहीं रही अब मन में?
स्वार्थी भाव भरे हैं जन-जन में,
क्यों नहीं सोचते हैं मेरा संरक्षण,
प्रकृति प्रेम क्यों वंचित मंथन में,
हे मानव!
मैं प्रकृति मां समान ही तो हूं,
सदा तेरा पालन पोषण करती हूं,
बड़ा होकर तू भूल जाता है मुझे,
तेरे कृत्यों से ही सदा मरती हूं।
