ज़रूरत
ज़रूरत
एक सुबह आँख खुली, साँस थी,
धड़कन थी, फिर भी क्यों बेचैनी सी।
दिन बढ़ा, तपिश बढ़ी, देख कहीं छांव,
मैंने लिया विराम, फिर भी कांटों सी
चुभ रही थी सूरज की किरणें।
कुछ दूर चले, पथ पर कई कंकर बिखरे,
पैरो में चप्पल थी फिर भी मानो
सब कंकर को जाना था पैरो के अंदर।
थक गया तो रुक गया, पिने को ठंडा पानी था,
सारा मैंने गटक लिया , फिर भी प्यासा में रह गया।
शरीर को जब भूख लगी, खाने को थे पकवान कई,
खाके फिर भी पकवानों को न जाने क्यों भूख बची।
हुआ अंधेरा ज्यों मैंने दिया जला लिया,
फिर भी दो उंगल पे रखा पत्थर टकरा गया।
अब सुबह से चलता में थक गया और सोने को
मैंने मखमल का बिस्तर पकड़ लिया,
फिर भी न जाने आँखों को सोना न था।
यूँ ही जीवन निकल रहा, और मैं एक ही सवाल
खुद से करता कि क्या है और ज़रूरत मेरी।
क्यों मुझको चैन नहीं।
फिर से एक सुबह हुई, साँस थी, धड़कन थी
और एक तस्वीर थी आँखों के सामने।
मासूम स चेहरा, आँखों में शरारत, और माथे पे
तेज़ लिए मानो वो कह रही थी,
कि मैं छांव बनके तेरे साथ चलूंगी,
किसी कंकर को न तुझे छूने दूँगी,
भूख प्यास न तुझे लगने दूँगी,
बन उजाला कोसो दूर तक फैलूंगी,
नींद बन तेरी आँखों में बस जाऊंगी।
यही थी मेरी ज़रूरत।