घर
घर
देखा था बचपन में एक घर अपने सपनों का,
जहाँ रहता था उजाला और बहता था झरना रंगों का।
दूर कहीं उड़ते आते थे पंछी और किरणें भी जाती थी
घर को अपने। दिन ढले सब थक हारके देखते खूब सपने।
घर मेरा सबसे प्यारा हर कोने में संसार हमारा,
हर एक दीवार जैसे पापा के कन्धे जिन पर बैठ घुमा संसार ये सारा।
घर का फर्श जैसे माँ का आँचल जिसमें
सिर रखकर भूले मैंने अपने सारे उलझन।
घर का आँगन जैसे भैया हमारे जिनसे
मिलके लगता ऐसे मानो छू लिया आसमान सारा।
घर में रंग जैसे बहना मेरी जिसे देख आ जाती चेहरे पे
रौनक और कभी न पड़ते फीके रंग मेरे जीवन के।
घर में खिड़की जैसे भाभी मेरी
जिनसे बात करके रोशन हो उठता मेरा जीवन।
और एक छोटा सा पंछी जो आया था किरणों में
छिपके और पुरा करता घर को मेरे।
देखा था बचपन में एक घर अपने सपनों का,
जहाँ रहता था उजाला और बहता था झरना रंगों का।