सिमटते हुए सवाल
सिमटते हुए सवाल
रेत में पानी की तरह होते है कुछ सवाल
पूछने पर जवाब की जगह जस्टिफिकेशन वाली रेत हाथ आती है...
और वह जस्टिफिकेशन वाली रेत असली रेत की मानिंद हाथ से फिसलती जाती है.....
मै उन सवालों का पीछा करते हुए और गहरायी में जाता हूँ
काफ़ी गहरायी में जाने के बाद जवाब हाथ में आते है...
पानी की तरह .......
पानी जैसे हाथ में रुकता नही है
ठीक वैसे ही वे सारे जवाब पानी की तरह हाथ से फिसल जाते है.......
मै झट से मुट्ठी बंद करता हूँ...
लेकिन फिर वे फिसल जाते है.....
मै भी अब उनको गिरने देता हूँ...
क्योंकि वक़्त की बयार में वे अपनी अहमियत खो चुके है.....
अब मेरे सामने फिर नए सवाल खड़े हो जाते है..…..
मै पिछले जवाबों का हश्र जानते हुए उन्हें नज़र अंदाज़ करने लगता हूँ...
सवाल भी कैसे कैसे?
कभी जिद्दी बच्चें की तरह....
कभी ढीठ होकर जवाब माँगने लगते है..
कुछ सवाल तो माज़ी की तल्खियों की मानिंद होते है
हर वक़्त पीछा करते रहते है.....
बिल्कुल ऐसे ही जैसे लोग भ्रूण हत्या पर क्यों शोर मचाते है?
क्योंकि भ्रूण हत्या तो आदमजात में ही होती है.....
जानवरों में भ्रूण हत्या कहाँ होती है?
फिर?
इस 'फिर' वाले सवाल का मेरे पास फिर जवाब नही होता है.....
मैं फिर अपने मे सिमट जाता हूँ....
सिमटते ही जाता हूँ........
