STORYMIRROR

दयाल शरण

Tragedy

2.5  

दयाल शरण

Tragedy

एकाकी

एकाकी

1 min
14.6K


भीड़ देखूं तो सहम जाता हूँ

तर्जनी पकडे कोई तो ठिठक जाता हूँ

जाने अकेलेपन में क्या-क्या खोया

कुछ भी मिलता है तो डर जाता हूँ।


साये के साथ ज़िंदगी को रंगने

कितने पन्ने बिखेर जाता हूँ

रूठ जाता हूँ कभी खुद से

कभी खुद को खुद ही मनाता हूँ।


क्या करूँ, किससे करूँ

किस किस की शिकायत ऐ दोस्त

वक्त के साथ उम्र-दर-उम्र

खुद से बिछड़ता जाता हूँ।


ऐ चाँद, ऐ सूरज तुझसे मैंने

सीखा है रोज़ अकेले उगना

जहॉं पे छाना फिर एक और

कल के लिए ढल जाना।


खुद से हताश नहीं हूँ

खुद से परेशां भी तो नहीं

जागता हूँ देर रात

थकाता हूँ खुद को

तभी तो बेफिक्र सो पाता हूँ।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy